सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

भरत- मृगमोह


एक बार भरत जी गंडकी नदी में स्नान कर नित्य-नैमित्तिक तथा शौच आदि अन्य आवश्यक कार्यों से निवृत हो प्रणव का जाप करते हुए 3 मुहूर्ततक नदीकी धाराके पास बैठे रहे। 1

इसी समय एक हरिणी प्यास से व्याकुल हो जल पीने के लिए अकेली ही उस नदी के तीर पर आयी।2

अभी वह जल पी ही रही थी की पास ही गरजते हुए सिंह की लोकभयंकर दहाड़ सुनाई पड़ी। 3

हरिन जाति तो स्वभाव से ही डरपोक होती है। वह पहले ही चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती जाती थी।अब ज्योंही उसके कान में वह भीषण शब्द पड़ा कि सिंहके डरके मारे उसका कलेजा धड़कने लगा और नेत्र कातर हो गए। प्यास अभी बुझी ही न थी, किंतु अब तो प्राणोंपर आ बनी थी। इसलिए उसनेभयवश एकाकी नदी पार करने के लिए छलांग मारी।4

उसके पेट में गर्भ था अतः चलते समय अत्यंत भय के कारण अपने स्थान से हटकर योनि द्वार से निकलकर नदी के प्रभाव में गिर गया। 5

राजर्षि भरत ने देखा कि बेचारा हरिणी का बच्चा अपने बंधुओं से बिछड़ कर नदी के प्रवाह में बह रहा है इससे उन्हें उस पर बड़ी दया आई और भी आदमी के समान उस मात्र हीन बच्चे को अपने आश्रम पर ले आए। 7

उस मृग छौने के प्रति भरतजी की ममता उत्तरोत्तर बढ़ती गई।वह नित्य उसके खाने-पीने का प्रबंध करने,व्याघ्र्यादि से बचाने, लाड लड़ाने और पुचकारने आदि की चिंता में डूबे रहने लगे। कुछ ही दिनों में उनके यम,नियम और भगवत पूजा आदि आवश्यक कृत्य एक-एक करके छूटने लगे और अंत में सभी छूट गए।8 

उन्हें ऐसा विचार रहने लगा—‘अहो! कैसे खेदकी बात है! इस बेचारे दीन मृगछौनेको कालचक्रके वेगने अपने झुंड, सुहृद् और बन्धुओंसे दूर करके मेरी शरणमें पहुँचा दिया है⁠। यह मुझे ही अपना माता-पिता, भाई-बन्धु और यूथके साथी-संगी समझता है⁠। इसे मेरे सिवा और किसीका पता नहीं है और मुझमें इसका विश्वास भी बहुत है⁠। मैं भी शरणागतकी उपेक्षा करनेमें जो दोष हैं, उन्हें जानता हूँ⁠। इसलिये मुझे अब अपने इस आश्रितका सब प्रकारकी दोषबुद्धि छोड़कर अच्छी तरह पालन-पोषण और प्यार-दुलार करना चाहिये ⁠।⁠।⁠९⁠।⁠। 

निश्चय ही शान्त-स्वभाव और दीनोंकी रक्षा करनेवाले परोपकारी सज्जन ऐसे शरणागतकी रक्षाके लिये अपने बड़े-से-बड़े स्वार्थकी भी परवाह नहीं करते’ ⁠।⁠।⁠१०⁠।⁠। 

इस प्रकार उस हरिनके बच्चेमें आसक्ति बढ़ जानेसे बैठते, सोते, टहलते, ठहरते और भोजन करते समय भीउनका चित्त उसके स्नेहपाशमें बँधा रहता था ⁠।⁠।⁠११⁠।⁠। 

जब उन्हें कुश, पुष्प, समिधा, पत्र और फल-मूलादि लाने होते तो भेड़ियों और कुत्तोंके भयसे उसे वे साथ लेकर ही वनमें जाते ⁠।⁠।⁠१२⁠।⁠। 

मार्गमें जहाँ-तहाँ कोमल घास आदिको देखकर मुग्धभावसे वह हरिणशावक अटक जाता तो वे अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदयसे दयावश उसे अपने कंधेपर चढ़ा लेते⁠। इसी प्रकार कभी गोदमें लेकर और कभी छातीसे लगाकर उसका दुलार करनेमें भी उन्हें बड़ा सुख मिलता ⁠।⁠।⁠१३⁠।⁠। 

नित्य-नैमित्तिक कर्मोंको करते समय भी राजराजेश्वर भरत बीच-बीचमें उठ-उठकर उस मृगबालकको देखते और जब उसपर उनकी दृष्टि पड़ती, तभी उनके चित्तको शान्ति मिलती⁠। उस समय उसके लिये मंगलकामना करते हुए वे कहने लगते—‘बेटा! तेरा सर्वत्र कल्याण हो’ ⁠।⁠।⁠१४⁠।⁠। 

कभी यदि वह दिखायी न देता तो जिसका धन लुट गया हो, उस दीन मनुष्यके समान उनका चित्त अत्यन्त उद्विग्न हो जाता और फिर वे उस हरिनीके बच्चेके विरहसे व्याकुल एवं सन्तप्त हो करुणावश अत्यन्त उत्कण्ठित एवं मोहाविष्ट हो जाते तथा शोकमग्न होकर इस प्रकार कहने लगते ⁠।⁠।⁠१५⁠।⁠।

‘अहो! क्या कहा जाय? क्या वह मातृहीन दीन मृगशावक दुष्ट बहेलियेकी-सी बुद्धिवाले मुझ पुण्यहीन अनार्यका विश्वास करके और मुझे अपना मानकर मेरे किये हुए अपराधोंको सत्पुरुषोंके समान भूलकर फिर लौट आयेगा? ⁠।⁠।⁠१६⁠।⁠।

 क्या मैं उसे फिर इस आश्रमके उपवनमें भगवान्‌की कृपासे सुरक्षित रहकर निर्विघ्न हरी-हरी दूब चरते देखूँगा? ⁠।⁠।⁠१७⁠।⁠। 

ऐसा न हो कि कोई भेड़िया, कुत्ता, गोल बाँधकर विचरनेवाले सूकरादि अथवा अकेले घूमनेवाले व्याघ्रादि ही उसे खा जायँ ⁠।⁠।⁠१८⁠।⁠।

 अरे! सम्पूर्ण जगत्‌की कुशलके लिये प्रकट होनेवाले वेदत्रयीरूप भगवान् सूर्य अस्त होना चाहते हैं; किन्तु अभीतक वह मृगीकी धरोहर लौटकर नहीं आयी! ⁠।⁠।⁠१९⁠।⁠। 

क्या वह हरिणराजकुमार मुझ पुण्यहीनके पास आकर अपनी भाँति-भाँतिकी मृगशावकोचित मनोहर एवं दर्शनीय क्रीडाओंसे अपने स्वजनोंका शोक दूर करते हुए मुझे आनन्दित करेगा? ⁠।⁠।⁠२०⁠।⁠। 

अहो! जब कभी मैं प्रणयकोपसे खेलमें झूठ-मूठ समाधिके बहाने आँखें मूँदकर बैठ जाता, तब वह चकित चित्तसे मेरे पास आकर जलबिन्दुके समान कोमल और नन्हें-नन्हें सींगोंकी नोकसे किस प्रकार मेरे अंगोंको खुजलाने लगता था ⁠।⁠।⁠२१⁠।⁠।

 मैं कभी कुशोंपर हवनसामग्री रख देता और वह उन्हें दाँतोंसे खींचकर अपवित्र कर देता तो मेरे डाँटने-डपटनेपर वह अत्यन्त भयभीत होकर उसी समय सारी उछल-कूद छोड़ देता और ऋषिकुमारकेसमान अपनी समस्त इन्द्रियोंको रोककर चुपचाप बैठ जाता था’⁠।⁠।⁠२२⁠।⁠।

 [फिर पृथ्वीपर उस मृगशावकके खुरके चिह्न देखकर कहने लगते—] ‘अहो! इस तपस्विनी धरतीने ऐसा कौन-सा तप किया है जो उस अतिविनीत कृष्णसारकिशोरके छोटे-छोटे सुन्दर, सुखकारी और सुकोमल खुरोंवाले चरणोंके चिह्नोंसे मुझे, जो मैं अपना मृगधन लुट जानेसे अत्यन्त व्याकुल और दीन हो रहा हूँ, उस द्रव्यकी प्राप्तिका मार्ग दिखा रही है और स्वयं अपने शरीरको भी सर्वत्र उन पदचिह्नोंसे विभूषित कर स्वर्ग और अपवर्गके इच्छुक द्विजोंके लिये यज्ञस्थल* बना रही है ⁠।⁠।⁠२३⁠।⁠। (चन्द्रमामें मृगका-सा श्याम चिह्न देख उसे अपना ही मृग मानकर कहने लगते—) ‘अहो! जिसकी माता सिंहके भयसे मर गयी थी, आज वही मृगशिशु अपने आश्रमसे बिछुड़ गया है⁠। अतः उसे अनाथ देखकर क्या ये दीनवत्सल भगवान् नक्षत्रनाथ दयावश उसकी रक्षा कर रहे हैं? ⁠।⁠।⁠२४⁠।⁠। 

[फिर उसकी शीतल किरणोंसे आह्लादित होकर कहने लगते—] ‘अथवा अपने पुत्रोंके वियोगरूप दावानलकी विषम ज्वालासे हृदयकमल दग्ध हो जानेके कारण मैंने एक मृगबालकका सहारा लिया था⁠। अब उसके चले जानेसे फिर मेरा हृदय जलने लगा है; इसलिये ये अपनी शीतल, शान्त, स्नेहपूर्ण और वदनसलिलरूपा अमृतमयी किरणोंसे मुझे शान्त कर रहे हैं’ ⁠।⁠।⁠२५⁠।⁠।


 मैं कभी कुशोंपर हवनसामग्री रख देता और वह उन्हें दाँतोंसे खींचकर अपवित्र कर देता तो मेरे डाँटने-डपटनेपर वह अत्यन्त भयभीत होकर उसी समय सारी उछल-कूद छोड़ देता और ऋषिकुमारकेराजन्! इस प्रकार जिनका पूरा होना सर्वथा असम्भव था, उन विविध मनोरथोंसे भरतका चित्त व्याकुल रहने लगा⁠। अपने मृगशावकके रूपमें प्रतीत होनेवाले प्रारब्धकर्मके कारण तपस्वी भरतजी भगवदाराधनरूप कर्म एवं योगानुष्ठानसे च्युत हो गये⁠। नहीं तो, जिन्होंने मोक्षमार्गमें साक्षात् विघ्नरूप समझकर अपने ही हृदयसे उत्पन्न दुस्त्यज पुत्रादिको भी त्याग दिया था, उन्हींकी अन्यजातीय हरिणशिशुमें ऐसी आसक्ति कैसे हो सकती थी⁠। इस प्रकार राजर्षि भरत विघ्नोंके वशीभूत होकर योगसाधनसे भ्रष्ट हो गये और उस मृगछौनेके पालन-पोषण और लाड़-प्यारमें ही लगे रहकर आत्मस्वरूपको भूल गये⁠। इसी समय जिसका टलना अत्यन्त कठिन है, वह प्रबल वेगशाली कराल काल, चूहेके बिलमें जैसे सर्प घुस आये, उसी प्रकार उनके सिरपर चढ़ आया ⁠।⁠।⁠२६⁠।⁠। 

उस समय भीवह हरिणशावक उनके पास बैठा पुत्रके समान शोकातुर हो रहा था⁠। वे उसे इस स्थितिमें देख रहे थे और उनका चित्त उसीमें लग रहा था⁠। इस प्रकारकी आसक्तिमें ही मृगके साथ उनका शरीर भी छूट गया⁠। तदनन्तर उन्हें अन्तकालकी भावनाके अनुसार अन्य साधारण पुरुषोंके समान मृगशरीर ही मिला⁠। किन्तु उनकी साधना पूरी थी, इससे उनकी पूर्वजन्मकी स्मृति नष्ट नहीं हुई ⁠।⁠।⁠२७⁠।⁠। उस योनिमें भी पूर्वजन्मकी भगवदाराधनाके प्रभावसे अपने मृगरूप होनेका कारण जानकर वे अत्यन्त पश्चात्ताप करते हुए कहने लगे, ⁠।⁠।⁠२८⁠।⁠।

' अहो बड़े खेद की बात है, मैं संयमशील महानुभावो के मार्ग से पतित हो गया! मैंने तो धैर्य पूर्वक सब प्रकारकीआशक्ति छोड़कर एकांत और पवित्र वन का आश्रय लिया था। वहां रहकर जिस चित् को मैंने सर्वभूतआत्मा श्री वासुदेवमें, निरंतर उन्हीं के गुणों का श्रवण, मनन और संकीर्तन करके तथा प्रत्येक पल को उन्हीं की आराधना और स्मरणआदि से सफल करके, स्थिरभाव से पूर्णतया लगा दिया था, मुझ अज्ञानी का वही मन अकस्मात एक नन्हे से हरिन शिशु के पीछे अपने लक्ष्य से च्युत हो गया।।29'

इस प्रकार मृग बने हुए राजर्षि भरतके हृदयमें जो वैराग्य-भावना जाग्रत् हुई, उसे छिपाये रखकर उन्होंने अपनी माता मृगीको त्याग दिया और अपनी जन्मभूमि कालंजर पर्वतसे वे फिर शान्तस्वभाव मुनियोंके प्रिय उसी शालग्रामतीर्थमें, जो भगवान्‌का क्षेत्र है, पुलस्त्य और पुलह ऋषिके आश्रमपर चले आये ⁠।⁠।⁠३०⁠।⁠। वहाँ रहकर भी वे कालकी ही प्रतीक्षा करने लगे⁠। आसक्तिसे उन्हें बड़ा भय लगने लगा था⁠। बस, अकेले रहकर वे सूखे पत्ते, घास और झाड़ियोंद्वारा निर्वाह करते मृगयोनिकी प्राप्ति करानेवाले प्रारब्धके क्षयकी बाट देखते रहे⁠। अन्तमें उन्होंने अपने शरीरका आधा भाग गण्डकीके जलमें डुबाये रखकर उस मृगशरीरको छोड़ दिया ⁠।⁠।⁠३१⁠।⁠।

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

निष्काम भक्ति योग

भरत चरित्र 5/7

  गंडकी नदी उस पुलहाश्रमके उपवनमें एकान्त स्थानमें अकेले ही रहकर वे अनेक प्रकारके पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल और कन्द-मूल-फलादि उपहारोंसे भगवान्‌की आराधना करने लगे⁠। इससे उनका अन्तःकरण समस्त विषयाभिलाषाओंसे निवृत्त होकर शान्त हो गया और उन्हें परम आनन्द प्राप्त हुआ ⁠।⁠।⁠११⁠।⁠।  इस प्रकार जब वे नियमपूर्वक भगवान्‌की परिचर्या करने लगे, तब उससे प्रेमका वेग बढ़ता गया—जिससे उनका हृदय द्रवीभूत होकर शान्त हो गया, आनन्दके प्रबल वेगसे शरीरमें रोमांच होने लगा तथा उत्कण्ठाके कारण नेत्रोंमें प्रेमके आँसू उमड़ आये, जिससे उनकी दृष्टि रुक गयी⁠। अन्तमें जब अपने प्रियतमके अरुण चरणारविन्दोंके ध्यानसे भक्तियोगका आविर्भाव हुआ, तब परमानन्दसे सराबोर हृदयरूप गम्भीर सरोवरमें बुद्धिके डूब जानेसे उन्हें उस नियमपूर्वक की जानेवाली भगवत्पूजाका भी स्मरण न रहा ⁠।⁠।⁠१२⁠।⁠।  इस प्रकार वे भगवत्सेवाके नियममें ही तत्पर रहते थे, शरीरपर कृष्णमृगचर्म धारण करते थे तथा त्रिकालस्नानके कारण भीगते रहनेसे उनके केश भूरी-भूरी घुँघराली लटोंमें परिणत हो गये थे, जिनसे वे बड़े ही सुहावने लगते थे⁠। वे उदित हुए सूर्यमण्डलमें सूर्यसम्बन्धिनी ऋच

वेदस्तुति

 "बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इंद्रियोंको वश में करके दृढ़ योगाभ्यासके द्वारा ह्रदयमें भगवान की उपासना करते हैं।" "उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है,उसीकी प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो भगवानसे वैर-भाव रखते हैं।" "भगवानकी दृष्टि में उपासक के परिछिन्न या अपरिछिन्न भावमें कोई अंतर नहीं है। चाहे जैसे-कैसे भी हो,चरणोंका स्मरण दिनरात बना रहे।" "बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इंद्रियोंको वश में करके दृढ़ योगाभ्यासके द्वारा ह्रदयमें भगवान की उपासना करते हैं।" "उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है,उसीकी प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो भगवानसे वैर-भाव रखते हैं।" "भगवानकी दृष्टि में उपासक के परिछिन्न या अपरिछिन्न भावमें कोई अंतर नहीं है। चाहे जैसे-कैसे भी हो,चरणोंका स्मरण दिनरात बना रहे।" भजन https://youtu.be/HgRM7Xdja3g