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७-भरत-चरित्र ८-भरतजीका मृगके मोहमें फँसकर मृगयोनिमें जन्म लेना  ९-भरतजीका ब्राह्मणकुलमें जन्म  १०-जडभरत और राजा रहूगणकी भेंट  ११-राजा रहूगणको भरतजीका उपदेश  १२-रहूगणका प्रश्न और भरतजीका समाधान  १३-भवाटवीका वर्णन और रहूगणका संशयनाश राजाभरत चंचलमृग ब्रह्मज्ञानी जड़भरत हुये। उपदेशक समाधानी भवाटवी - रहुगण के संशयहर्ता हुए।  

रहूगण5/10

 पालकी अब भी सीधी चालसे नहीं चल रही है—यह देखकर राजा रहूगण क्रोधसे आग-बबूला हो गया और कहने लगा, ‘अरे! यह क्या? क्या तू जीता ही मर गया है? तू मेरा निरादर करके (मेरी) आज्ञाका उल्लंघन कर रहा है! मालूम होता है, तू सर्वथा प्रमादी है⁠। अरे! जैसे दण्डपाणि यमराज जन-समुदायको उसके अपराधोंके लिये दण्ड देते हैं, उसी प्रकार मैं भी अभी तेरा इलाज किये देता हूँ⁠। तब तेरे होश ठिकाने आ जायँगे’ ⁠।⁠।⁠७⁠।⁠।रहूगणको राजा होनेका अभिमान था, इसलिये वह इसी प्रकार बहुत-सी अनाप-शनाप बातें बोल गया⁠। वह अपनेको बड़ा पण्डित समझता था, अतः रज-तमयुक्त अभिमानके वशीभूत होकर उसने भगवान्‌के अनन्य प्रीतिपात्र भक्तवर भरतजीका तिरस्कार कर डाला⁠। योगेश्वरोंकी विचित्र कहनी-करनीका तो उसे कुछ पता ही न था⁠। उसकी ऐसी कच्ची बुद्धि देखकर वे सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद् एवं आत्मा, ब्रह्मभूत ब्राह्मणदेवता मुसकराये और बिना किसी प्रकारका अभिमान किये इस प्रकार कहने लगे ⁠।⁠।⁠८⁠।⁠। जडभरतने कहा—राजन्! तुमने जो कुछ कहा वह यथार्थ है⁠। उसमें कोई उलाहना नहीं है⁠। यदि भार नामकी कोई वस्तु है तो ढोनेवालेके लिये है, यदि कोई मार्ग है तो वह चलनेवालेके लिये

संवाद मन 5/11

 विरक्त महापुरुषों के सत्संग से प्राप्त ज्ञान रूप खड़ग के द्वारा मनुष्यको इस लोकमें ही अपने मोहबंधन को काट डालना चाहिए। फिर श्री हरि की लीलाओंके कथन और श्रवणसे भगवत स्मृति बनी रहनेके कारण वह सुगमतासे ही संसारमार्ग को पार करके भगवानको प्राप्त कर सकता है। भागवत महापुराण स्कंध 5 अध्याय 12 श्लोक 16.

भरत- मृगमोह

एक बार भरत जी गंडकी नदी में स्नान कर नित्य-नैमित्तिक तथा शौच आदि अन्य आवश्यक कार्यों से निवृत हो प्रणव का जाप करते हुए 3 मुहूर्ततक नदीकी धाराके पास बैठे रहे। 1 इसी समय एक हरिणी प्यास से व्याकुल हो जल पीने के लिए अकेली ही उस नदी के तीर पर आयी।2 अभी वह जल पी ही रही थी की पास ही गरजते हुए सिंह की लोकभयंकर दहाड़ सुनाई पड़ी। 3 हरिन जाति तो स्वभाव से ही डरपोक होती है। वह पहले ही चौकन्नी होकर इधर-उधर देखती जाती थी।अब ज्योंही उसके कान में वह भीषण शब्द पड़ा कि सिंहके डरके मारे उसका कलेजा धड़कने लगा और नेत्र कातर हो गए। प्यास अभी बुझी ही न थी, किंतु अब तो प्राणोंपर आ बनी थी। इसलिए उसनेभयवश एकाकी नदी पार करने के लिए छलांग मारी।4 उसके पेट में गर्भ था अतः चलते समय अत्यंत भय के कारण अपने स्थान से हटकर योनि द्वार से निकलकर नदी के प्रभाव में गिर गया। 5 राजर्षि भरत ने देखा कि बेचारा हरिणी का बच्चा अपने बंधुओं से बिछड़ कर नदी के प्रवाह में बह रहा है इससे उन्हें उस पर बड़ी दया आई और भी आदमी के समान उस मात्र हीन बच्चे को अपने आश्रम पर ले आए। 7 उस मृग छौने के प्रति भरतजी की ममता उत्तरोत्तर बढ़ती गई।वह नित्

जड़ भरत 5/9

  जब दस्युराजके पुरोहित बने हुए लुटेरेने उस नर-पशुके रुधिरसे देवीको तृप्त करनेके लिये देवीमन्त्रोंसे अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया ⁠।⁠।⁠१६⁠।⁠।  चोर स्वभावसे तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही, धनके मदसे उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था⁠। हिंसामें भी उनकी स्वाभाविक रुचि थी⁠। इस समय तो वे भगवान्‌के अंशस्वरूप ब्राह्मणकुलका तिरस्कार करके स्वच्छन्दतासे कुमार्गकी ओर बढ़ रहे थे⁠। आपत्तिकालमें भी जिस हिंसाका अनुमोदन किया गया है, उसमें भी ब्राह्मणवधका सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभावको प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियोंके सुहृद् एक ब्रह्मर्षिकुमारकी बलि देना चाहते थे⁠। यह भयंकर कुकर्म देखकर देवी भद्रकालीके शरीरमें अति दुःसह ब्रह्मतेजसे दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्तिको फोड़कर प्रकट हो गयीं ⁠।⁠।⁠१७⁠।⁠।  अत्यन्त असहनशीलता और क्रोधके कारण उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखोंके कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था⁠। उनके उस विकराल वेषको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस संसारका संहार कर डालेंगी⁠। उन्होंने क्रोधसे तड़ककर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उछलकर उस अभिमन्त्रित

भरत चरित्र 5/7

  गंडकी नदी उस पुलहाश्रमके उपवनमें एकान्त स्थानमें अकेले ही रहकर वे अनेक प्रकारके पत्र, पुष्प, तुलसीदल, जल और कन्द-मूल-फलादि उपहारोंसे भगवान्‌की आराधना करने लगे⁠। इससे उनका अन्तःकरण समस्त विषयाभिलाषाओंसे निवृत्त होकर शान्त हो गया और उन्हें परम आनन्द प्राप्त हुआ ⁠।⁠।⁠११⁠।⁠।  इस प्रकार जब वे नियमपूर्वक भगवान्‌की परिचर्या करने लगे, तब उससे प्रेमका वेग बढ़ता गया—जिससे उनका हृदय द्रवीभूत होकर शान्त हो गया, आनन्दके प्रबल वेगसे शरीरमें रोमांच होने लगा तथा उत्कण्ठाके कारण नेत्रोंमें प्रेमके आँसू उमड़ आये, जिससे उनकी दृष्टि रुक गयी⁠। अन्तमें जब अपने प्रियतमके अरुण चरणारविन्दोंके ध्यानसे भक्तियोगका आविर्भाव हुआ, तब परमानन्दसे सराबोर हृदयरूप गम्भीर सरोवरमें बुद्धिके डूब जानेसे उन्हें उस नियमपूर्वक की जानेवाली भगवत्पूजाका भी स्मरण न रहा ⁠।⁠।⁠१२⁠।⁠।  इस प्रकार वे भगवत्सेवाके नियममें ही तत्पर रहते थे, शरीरपर कृष्णमृगचर्म धारण करते थे तथा त्रिकालस्नानके कारण भीगते रहनेसे उनके केश भूरी-भूरी घुँघराली लटोंमें परिणत हो गये थे, जिनसे वे बड़े ही सुहावने लगते थे⁠। वे उदित हुए सूर्यमण्डलमें सूर्यसम्बन्धिनी ऋच

वेदस्तुति

 "बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इंद्रियोंको वश में करके दृढ़ योगाभ्यासके द्वारा ह्रदयमें भगवान की उपासना करते हैं।" "उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है,उसीकी प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो भगवानसे वैर-भाव रखते हैं।" "भगवानकी दृष्टि में उपासक के परिछिन्न या अपरिछिन्न भावमें कोई अंतर नहीं है। चाहे जैसे-कैसे भी हो,चरणोंका स्मरण दिनरात बना रहे।" "बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इंद्रियोंको वश में करके दृढ़ योगाभ्यासके द्वारा ह्रदयमें भगवान की उपासना करते हैं।" "उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है,उसीकी प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो भगवानसे वैर-भाव रखते हैं।" "भगवानकी दृष्टि में उपासक के परिछिन्न या अपरिछिन्न भावमें कोई अंतर नहीं है। चाहे जैसे-कैसे भी हो,चरणोंका स्मरण दिनरात बना रहे।" भजन https://youtu.be/HgRM7Xdja3g