जब दस्युराजके पुरोहित बने हुए लुटेरेने उस नर-पशुके रुधिरसे देवीको तृप्त करनेके लिये देवीमन्त्रोंसे अभिमन्त्रित एक तीक्ष्ण खड्ग उठाया ।।१६।। चोर स्वभावसे तो रजोगुणी-तमोगुणी थे ही, धनके मदसे उनका चित्त और भी उन्मत्त हो गया था। हिंसामें भी उनकी स्वाभाविक रुचि थी। इस समय तो वे भगवान्के अंशस्वरूप ब्राह्मणकुलका तिरस्कार करके स्वच्छन्दतासे कुमार्गकी ओर बढ़ रहे थे। आपत्तिकालमें भी जिस हिंसाका अनुमोदन किया गया है, उसमें भी ब्राह्मणवधका सर्वथा निषेध है, तो भी वे साक्षात् ब्रह्मभावको प्राप्त हुए वैरहीन तथा समस्त प्राणियोंके सुहृद् एक ब्रह्मर्षिकुमारकी बलि देना चाहते थे। यह भयंकर कुकर्म देखकर देवी भद्रकालीके शरीरमें अति दुःसह ब्रह्मतेजसे दाह होने लगा और वे एकाएक मूर्तिको फोड़कर प्रकट हो गयीं ।।१७।। अत्यन्त असहनशीलता और क्रोधके कारण उनकी भौंहें चढ़ी हुई थीं तथा कराल दाढ़ों और चढ़ी हुई लाल आँखोंके कारण उनका चेहरा बड़ा भयानक जान पड़ता था। उनके उस विकराल वेषको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो वे इस संसारका संहार कर डालेंगी। उन्होंने क्रोधसे तड़ककर बड़ा भीषण अट्टहास किया और उ...
"बड़े-बड़े विचारशील योगी-यति अपने प्राण, मन और इंद्रियोंको वश में करके दृढ़ योगाभ्यासके द्वारा ह्रदयमें भगवान की उपासना करते हैं।" "उन्हें जिस पद की प्राप्ति होती है,उसीकी प्राप्ति उन शत्रुओं को भी हो जाती है, जो भगवानसे वैर-भाव रखते हैं।" "भगवानकी दृष्टि में उपासक के परिछिन्न या अपरिछिन्न भावमें कोई अंतर नहीं है। चाहे जैसे-कैसे भी हो,चरणोंका स्मरण दिनरात बना रहे।"
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